निर्मल वर्मा
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निर्मल वर्मा हिन्दी के आधुनिक कथाकारों में एक मूर्धन्य कथाकार और पत्रकार हैं। ३ मई १९२९ को शिमला में जन्मे निर्मल वर्मा को मूर्तिदेवी पुरस्कार (१९९५), साहित्य अकादमी पुरस्कार(१९८५) उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान पुरस्कार और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। परिंदे (१९५८) से प्रसिद्धि पाने वाले निर्मल वर्मा की कहानियां अभिव्यक्ति और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ समझी जाती हैं।
ब्रिटिश भारत सरकार के रक्षा विभाग में एक उच्च पदाधिकारी श्री नंद कुमार वर्मा के घर जन्म लेने वाले आठ भाई बहनों में से पांचवें निर्मल वर्मा की संवेदनात्मक बुनावट पर हिमांचल की पहाड़ी छायाएं दूर तक पहचानी जा सकती हैं।
दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कालेज से इतिहास में एम ए करने के बाद कुछ दिनों तक उन्होंने अध्यापन किया। १९५९ से प्राग (चेकोस्लोवाकिया) के प्राच्य विद्या संस्थान में सात वर्ष तक रहे। उसके बाद लंदन में रहते हुए टाइम्स आफ इंडिया के लिये सांस्कृतिक रिपोर्टिंग की। १९७२ में स्वदेश लौटे। १९७७ में आयोवा विश्व विद्यालय (अमरीका) के इंटरनेशनल राइटर्स प्रोग्राम में हिस्सेदारी की। उनकी कहानी माया दर्पण पर फिल्म बनी जिसे १९७३ का सर्र्र्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म का पुरस्कार प्राप्त हुआ।
वे इंडियन इंस्टीटयूट आफ एडवांस स्टडीज़ (शिमला) के फेलो (१९७३), निराला सृजनपीठ भोपाल (१९८१-८३) और यशपाल सृजनपीठ (शिमला) के अध्यक्ष रहे (१९८९)। १९८८ में इंगलैंड के प्रकाशक रीडर्स इंटरनेशनल द्वारा उनकी कहानियों का संग्रह द वर्ल्ड एल्सव्हेयर प्रकाशित। इसी समय बीबीसी द्वार उनपर डाक्यूमेंट्री फिल्म प्रसारित।
[बदलें] प्रमुख कृतियां
- उपन्यास: अंतिम अरण्य, रात का रिपोर्टर, एक चिथड़ा सुख, लाल टीन की छत, वे दिन।
- कहानी संग्रह: परिंदे, कौवे और काला पानी, सूखा तथा अन्य कहानियां, बीच बहस में, जलती झाड़ी, पिछली गर्मियों में।
- संस्मरण/यात्रा वृत्तांत: धुंध से उठती धुन, चीड़ों पर चांदनी।
- नाटक: तीन एकांत
- निबंध: भारत और यूरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र, शताब्दी के ढलते वर्षों से, कला का जोखिम, शब्द और स्मृति, ढलान से उतरते हुए।
[बदलें] यह भी देखें
हिंदी के प्रमुख साहित्यकार |
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