केशव
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केशव रीतिकाल की कवि-त्रयी के एक प्रमुख स्तंभ हैं।
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[बदलें] जीवन परिचय
आचार्य केशवदास का जन्म 1546 ईस्वी में ओरछा में हुआ था। वे सनाढय ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम पं क़ाशीनाथ था। ओरछा के राजदरबार में उनके परिवार का बड़ा मान था। केशवदास स्वयं ओरछा नरेश महाराज रामसिंह के भाई इंद्रजीत सिंह के दरबारी कवि, मंत्री और गुरु थे। इंद्रजीत सिंह की ओर से इन्हें इक्कीस गांव मिले हुए थे। वे आत्मसम्मान के साथ विलासमय जीवन व्यतीत करते थे।
केशवदास संस्कृत के उद्भट विद्वान थे। उनके कुल में भी संस्कृत का ही प्रचार था। नौकर-चाकर भी संस्कृत बोलते थे। उनके कुल में भी संस्कृत छोड़ हिंदी भाषा में कविता करना उन्हें कुछ अपमानजनक-सा लगा -
भाषा बोल न जानहीं, जिनके कुल के दास।
तिन भाषा कविता करी, जडमति केशव दास।।
केशव बड़े भावुक और रसिक व्यक्ति थे। कहा जाता कि एक बार वृध्दावस्था में वे किसी कुएं पर बैठे थे। वहां पानी भरने के लिए आई हुई कुछ स्त्रियों ने उन्हें बाबा कहकर संबोधन किया। इस पर उन्होंने निम्न दोहा कहा -
केशव केसनि असि करी, बैरिहु जस न कराहिं
चंद्रवदन मृगलोचनी बाबा कहि कहि जाहिं।
संवत 1608 के लगभग जहांगीर ने ओरछा का राज्य वीर सिंह देव को दे दिया। केशव कुछ समय तक वीर सिंह के दरबार में रहे, फिर गंगातट पर चले गए और वहीं रहने लगे।
1618 ईस्वी में उनका देहावसान हो गया।
[बदलें] रचनाएं
केशव दास जी द्वारा रचित सात ग्रंथ प्रसिद्ध हैं -
- कवि प्रिया,
- रसिक प्रिया,
- राम चंद्रिका,
- वीरसिंह देव चरित,
- विज्ञान गीता,
- रतन बाबिनी और
- जहांगिर जस चंद्रिका।
राम चंद्रिका केशव का सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है और यह महाकाव्य की श्रेणी में आता है। इसमें राम-कथा का वर्णन है।
[बदलें] काव्यगत विशेषताएं
[बदलें] वर्ण्य विषय
केशव दरबारी कवि थे। अन्य दरबारी कवियों की भांति उन्होंने भी अपने आश्रयदाता राजाओं का यशोगान किया है। वीर सिंह देव चरित और जहांगीर जस चंद्रिका उनकी ऐसी ही रचनाएं हैं।
केशव का दूसरा रूप आचार्य का है। कवि-प्रिया और रसिक-प्रिया में इन्होंने संस्कृत के लक्षण, ग्रंथों का अनुवाद किया और उदाहरण स्वरूप अपनी कविताओं की रचना की।
राम चंद्रिका का विषय राम-भक्ति है किंतु केशव कवि पहले थे, कवि बाद में। अतः उनमें भक्ति-भावना की अपेक्षा काव्य-चमत्कार के प्रदर्शन की भावना अधिक है।
विज्ञान गीता में केशव ने वैराग्य से संबंधित भावनाओं को व्यक्त किया है।
[बदलें] प्रकृति चित्रण
राजदरबारों की साज-सज्जा के बीच रहने के कारण केशव की प्रवृत्ति प्रकृति में नहीं रही। उनका प्रकृति-चित्रण दोष-पूर्ण है। उसमें परंपरा का निर्वाद अधिक है, मौलिकता और नवीनता कम। वर्णन करने में कहीं-कहीं केशव ने काल और स्थान का भी ध्यान नहीं रखा है।
अलंकारों के बोझ से दबी प्रकृति अपना सहन सौंदर्य खो बैठी है। प्रकृति के संबंध में केशव की कल्पनाएं कहीं-कहीं पर बड़ी असंगत और अरुचिकर हो गई हैं। अरुण सूर्य को कापालिक काल का रक्त से भरा कपाल बना देना कसे का चकर प्रतीत होगा - कै सोनित कलित कपाल यह, किल कपालिक काल को।
[बदलें] संवाद योजना
दरबारी कवि होने के कारण केशव में राजदरबारों की वाक्पटुता वर्तमान थी। अतः संवादों की योजना में उन्हें असाधारण सफलता मिली। उनके संवाद अत्यंत आकर्षक हैं। उनमें राजदरबारों जैसी हाज़िर-जवाबी और शिष्टता है। उनके द्वारा चरित्रों का उद्धाटन सुंदर ढंग से हुआ है। जनक-विश्वामित्र संवाद, लव-कुश संवाद, सीता-हनुमान संवाद इसी प्रकार के संवाद हैं।
अंगद - रावण-संवाद के अंतर्गत एक उत्तर-प्रत्युत्तर देखिए _ रावण - गेंद करेउं मैं खैल की, हर-गिरि केशोदास।
सीस चढाए आपने, कमल समान सहास।।
अंगद - जैसो तुम कहत उठायो एक गिरिवर,
ऐसे कोटि कपिल के बालक उठावहीं।
काटे जो कहत सीस काटन घनेरे घाघ,
मगर के खेले कहा भट-पद पावहीं।।
[बदलें] पांडित्य-प्रदर्शन
आचार्य केशवदास उच्चकोटि के विद्वान थे। अतः उनके काव्य में कल्पना और मस्तिष्क को योग अधिक है। उनका ध्यान जितना पांडित्य-प्रदर्शन की ओर था उतना भाव-प्रदर्शन की ओर नहीं। पांडित्य-प्रदर्शन की इसी प्रवृत्ति के कारण कुछ आलोचकों ने केशव को हृदय-हीन कवि कहा है, किंतु यह आरोप पूर्णतः सत्य नहीं, क्योंकि पांडित्य प्रदर्शन के साथ-साथ केशव के काव्य में ऐसे अनेकानेक स्थल हैं जहां उनकी भावुकता और सहृदयतापूर्ण साकार हो उठी है।
अशोक वाटिका में हनुमान जी सीता जी को रामचंद्र जी की मुद्रिका देते हैं। मुद्रिका के प्रति सीता जी का कथन कितना भावपूर्ण है-
श्री पुर में बन मध्य है, तू मग करी अनीति।
कहि मुंदरी अब तियन की, को करि हैं परतीति।।
[बदलें] भाषा
केशव ने अपने काव्य का माध्यम ब्रजभाषा को बनाया, परंतु ब्रजभाषा का जो ढला हुआ रूप सूर आदि अष्ट छाप के कवियों में मिलता है वह केशव की कविता में नहीं। केशव संस्कृत के प्रकांड़ पंडित थे, अतः उनकी भाषा संस्कृत से अत्यधिक प्रभावित है। उन्होंने संस्कृत के तत्सम शब्दों को ही नहीं, संस्कृत की विभक्तियों को भी अपनाया है, कहीं-कहीं तो उनके छंदों की भाषा संस्कृत ही जान पड़ती है-
रामचंद्र पद पद्मं वृंदारक वृंदाभिवंदनीयम्।
केशवमति भूतनया लोचनं चंचरीकायते।।
केशव की भाषा में बुंदेलखंडी भाषा का भी काफ़ी मिश्रण मिलता है। खारक(छोहारा), थोरिला(खूंटी), दुगई(दालान), गौरमदाइन(इंद्रधनुष) आदि जैसे बुंदेली शब्दों का प्रयोग बराबर उनके काव्य में हुआ। अवधि भाषा के शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। जैसे - इहां, उहां, दिखाउ, रिझाउ आदि।
केशव ने कहीं-कहीं तो शब्दों को गढ लिया है। जैसे - चाप से चापकीय। अप्रचलित शब्दों के प्रयोग में भी उन्होंने पूरी तरह स्वच्छंदता से काम लिया। जैसे - आलोक(कलंक), लांच(रिश्वत), नारी(समूह) आदि। जल के अर्थ में विष शब्द का प्रयोग केशव की भाषा में ही मिलता है -
विषमय यह गोदावरी, अमृतन को फल देति।
केशव जीवन हार को, दुख अशेष हर लेति।।
संस्कृत और बुंदेलखंडी के अत्यधिक प्रभाव, लंबी-लंबी शब्द-योजना अप्रचलित शब्दों के प्रयोग आदि के कारण केशव की भाषा में कहीं-कहीं अत्यंत विलष्टता आ गई है।
केशव की भाषा का सामान्य रूप अपेक्षाकृत सुगम है। उसमें कहावतों और मुहावरों का भी यथा-स्थान प्रयोग हुआ है। लाज मरना कहावत का एक प्रयोग देखिए -
कहि केशव आपनि जांघ उघारि के,
आपहि लाजन की मरिई।
[बदलें] शैली
केशव की शैली पर उनके व्यक्तित्व की छाप स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है इस संबंध में उन्होंने अपने किसी पूर्व कवि का अनुसरण नहीं किया। अनेक कवियों की कविताओं के बीच उनकी कविता को सरलता से पहिचाना जा सकता है।
संक्षेप में केशव की शैली प्रौढ़ और गंभीर है। पांडित्य-प्रदर्शन के कारण वह कुछ दुरूह हो गई है।
[बदलें] रस
केशव दास जी ने अपने काव्य में अनेक स्थलों पर विविध रसों की उत्कृष्ट व्यंजना की है, किंतु मुख्यतः वे श्रृंगार और वीर रस के कवि हैं। श्रृंगार के दोनों पक्षों को उन्होंने अपनाया है। वीरोचित उत्साह के मार्मिक वर्णन में तो वे अपनी सानी नहीं रखते। शत्रुघ्न के बाणों से मूर्छित लव के लिए विलाप करती हुई सीता के प्रति कुश का कथन कितना उत्साहपूर्ण है _ रिपुहिं मारि संहारिदल यम ते लेहुं छुडाय। लवहिं मिलै हों देखिहों माता तेरे पाय।।
[बदलें] छंद
छंदों के विषय केशव का ज्ञान अपार था। जितने प्रकार के छंदों का प्रयोग उन्होंने किया हिंदी साहित्य में किसी ने नहीं किया। रामचंद्रिका में तो छंदों की विविधता इस सीमा तक पहुंच गई है कि विद्वानों ने उसे शब्दों का अजायबघर कह दिया है। केशव ने स्वतः लिखा है -
रामचंद्र की चंद्रिका बरनति हौं बहु छंद।
केशव की छंद योजना संस्कृत साहित्य की छंद योजना है। उन्होंने कविता, सवैया, दोहा आदि छंदों का भी सफलतापूर्वक उपयोग किया है।
अलंकार - केशव को अलंकारों से विशेष मोह था उनके अनुसार -
जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरस सुवृत्त
भूषन विन न विराजहीं कविता बनिता भित्त।।
अतः उनकी कविता में विभिन्न अलंकारों का प्रयोग सर्वत्र दिखाई देता है। अलंकारों के बोझ से कविता के भाव दब से गए हैं और पाठक को केवल चमत्कार हाथ लगता है।
जहां अलंकार-योजना प्रति केशव को कठोर आग्रह नहीं है, वहां उनकी कविता अत्यंत हृदयग्राही और सरस हैं। उपमा-अलंकार का एक उदाहरण देखिए- दशरथ-मरण के उपरांत भरत जब महल में प्रवेश करते हैं तो वे माताओं को वृक्ष विहीन लताओं के समान पाते हैं।
मंदिर मातु विलोक अकेली।
ज्यों बिनु वृक्ष विराजत बेली।।
[बदलें] साहित्य में स्थान
केशव दासजी हिंदी साहित्य के प्रथम आचार्य हैं। हिंदी में सर्व प्रथम उन्होंने ही काव्य के विभिन्न अंगों का शास्त्रीय पद्धति से विवेचन किया। यह ठीक है कि उनके काव्य में भाव पक्ष की अपेक्षा कला पक्ष की प्रधानता है और पांडित्य प्रदर्शन के कारण उन्हें कठिन काव्य के प्रेत कह कर पुकारा जाता है किंतु उनका महत्व बिल्कुल समाप्त नहीं हो जाता। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में केशव की रचना में सुर, तुलसी आदि की सी सरलता और तन्मयता चाहे न हो पर काव्यांगों का विस्तृत परिचय करा कर उन्होंने आगे के लिए मार्ग खोला। केशवदास जी वस्तुतः एक श्रेष्ठ कवि थे। सुर और तुलसी के पश्चात हिंदी-काव्य-जगत में उन्हीं की ही गणना की जाती है-
सूर सूर तुलसी ससी उड्डगन केशवदास।
अबके कवि खद्योत सम जह-तह करत प्रकाश।।