रस, छंद तथा अलंकार
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रस, छंद और अलंकार काव्य रचना के आवश्यक अवयव होते हैं।
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[बदलें] रस
रस का अर्थ होता है निचोड़। काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकरम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है।
श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृष्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है।
रस के प्रकार रस 9 प्रकार के होते हैं -
क्रमांक | रस का प्रकार | स्थायी भाव |
---|---|---|
1. | श्रृंगार रस | रति |
2. | हास्य रस | हास |
3. | करुण रस | शोक |
4. | रौद्र रस | क्रोध |
5. | वीर रस | उत्साह |
6. | भयानक रस | भय |
7. | वीभत्स रस | घृणा, जुगुप्सा |
8. | अद्भुत रस | आश्चर्य |
9. | शांत रस | निर्वेद |
वात्सल्य रस को दसवाँ रस माना गया है तथा वत्सल इसका स्थायी भाव है।
[बदलें] छंद
छंद का सबसे पहले उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है।
वर्णों की संख्या, क्रम, मात्रा और गति-यति के नियमों से नियोजित पद्य रचना छन्द कहलाती है।
छंद को पद्य रचना का मापदंड कहा जा सकता है। बिना कठिन साधना के कविता में छंद योजना को साकार नहीं किया जा सकता।
[बदलें] छंद के अंग
छंद के निम्नलिखित अंग होते हैं -
- गति - पद्य के पाठ में जो बहाव होता है उसे गति कहते हैं।
- यति - पद्य पाठ करते समय गति को तोड़कर जो विश्राम दिया जाता है उसे यति कहते हैं।
- तुक - समान उच्चारण वाले शब्दों के प्रयोग को तुक कहा जाता है। पद्य प्रायः तुकान्त होते हैं।
- मात्रा - वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं। मात्रा २ प्रकार की होती है लघु और गुरु। ह्रस्व उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा लघु होती है तथा दीर्घ उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा गुरु होती है। लघु मात्रा का मान १ होता है और उसे । चिन्ह से प्रदर्शित किया जाता है। इसी प्रकार गुरु मात्रा का मान मान २ होता है और उसे ऽ चिन्ह से प्रदर्शित किया जाता है।
- गण - मात्राओं और वर्णों की संख्या और क्रम की सुविधा के लिये तीन वर्णों के समूह को एक गण मान लिया जाता है। गणों की संख्या ८ है - यगण (।ऽऽ), मगण (ऽऽऽ), तगण (ऽऽ।), रगण (ऽ।ऽ), जगण (।ऽ।), भगण (ऽ।।), नगण (।।।) और लगण (।।ऽ)।
- चरण - छंद के प्रायः चार चरण होते हैं अंतिम अर्थात् चौथे चरण को पाद कहा जाता है।
[बदलें] छंद के प्रकार
- मात्रिक छंदः जिन छंदों में मात्राओं की संख्या निश्चि होती है उन्हें मात्रि छंद कहा जाता है। जैसे - दोहा, रोला, सोरठा, चौपाई
- वार्णिक छंदः वर्णों की गणना पर आधारित छंद वार्णिक छंद कहलाते हैं। जैसे - घनाक्षरी, दण्डक
- वर्ण वृतः सम छंद को वृत कहते हैं। इसमें चारों चरण समान होते हैं और प्रत्येक चरण में आने वाले लघु गुरु मात्राओं का क्रम निश्चित रहता है। जैसे - द्रुतविलंबित, मालिनी
- मुक्त छंदः भक्ति काल तक मुक्त छंद का अस्तित्व नहीं था, यह आधुनिक युग की देन है। इसके प्रणेता सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' माने जाते हैं। मुक्त छंद नियमबद्ध नहीं होते, केवल स्वछंद गति और भावपूर्ण यति ही मुक्त छंद की विशेषता हैं।
- मुक्त छंद का उदाहरण -
वह आता दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता। पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठी-भर दाने को, भूख मिटाने को, मुँह फटी-पुरानी झोली का फैलाता, दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता।
[बदलें] काव्य में छंद का महत्व
- छंद से हृदय को सौंदर्यबोध होता है।
- छंद मानवीय भावनाओं को झंकृत करते हैं।
- छंद में स्थायित्व होता है।
- छंद सरस होने के कारण मन को भाते हैं।
- छंद के निश्चित आधार पर आधारित होने के कारण वे सुगमतापूर्वक कण्ठस्त हो जाते हैं।
उदाहरण -
भभूत लगावत शंकर को, अहिलोचन मध्य परौ झरि कै।
अहि की फुँफकार लगी शशि को, तब अंमृत बूंद गिरौ चिरि कै।
तेहि ठौर रहे मृगराज तुचाधर, गर्जत भे वे चले उठि कै।
सुरभी-सुत वाहन भाग चले, तब गौरि हँसीं मुख आँचल दै॥
अर्थात् (प्रातः स्नान के पश्चात्) पार्वती जी भगवान शंकर के मस्तक पर भभूत लगा रही थीं तब थोड़ा सा भभूत झड़ कर शिव जी के वक्ष पर लिपटे हुये साँप की आँखों में गिरा। (आँख में भभूत गिरने से साँप फुँफकारा और उसकी) फुँफकार शंकर जी के माथे पर स्थित चन्द्रमा को लगी (जिसके कारण चन्द्रमा काँप गया तथा उसके काँपने के कारण उसके भीतर से) अमृत की बूँद छलक कर गिरी। वहाँ पर (शंकर जी की आसनी) जो मृगछाला थी वह (अमृत बूंद के प्रताप से जीवित होकर) उठ कर गर्जना करते हुये चलने लगा। सिंह की गर्जना सुनकर गाय का पुत्र - बैल, जो शिव जी का वाहन है, भागने लगा तब गौरी जी मुँह में आँचल रख कर हँसने लगीं मानो शिव जी से प्रतिहास कर रही हों कि देखो मेरे वाहन (पार्वती का एक रूप दुर्गा का है तथा दुर्गा का वाहन सिंह है) से डर कर आपका वाहन कैसे भाग रहा है।
[बदलें] छंदों के कुछ प्रकार
[बदलें] दोहा
दोहा मात्रिक छंद है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) चरण में 13-13 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। उदाहरण -
मुरली वाले मोहना, मुरली नेक बजाय। तेरो मुरली मन हरो, घर अँगना न सुहाय॥
[बदलें] रोला
रोला मात्रिक सम छंद होता है। इसके विषम चरणों में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं। उदाहरण -
यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै। पर-स्वारथ के काज, शीश आगे धर दीजै॥
[बदलें] सोरठा
सोरठा मात्रिक छंद है और यह दोहा का ठीक उलटा होता है। इसके विषम चरणों चरण में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। उदाहरण -
जो सुमिरत सिधि होय, गननायक करिबर बदन। करहु अनुग्रह सोय, बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥
[बदलें] चौपाई
चौपाई मात्रिक सम छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं। उदाहरण -
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥
[बदलें] कुण्डलिया
कुण्डलिया मात्रिक छंद है। दो दोहों के बीच एक रोला मिला कर कुण्डलिया बनती है। पहले दोहे का अंतिम चरण ही रोले का प्रथम चरण होता है तथा जिस शब्द से कुण्डलिया का आरम्भ होता है, उसी शब्द से कुण्डलिया समाप्त भी होता है। उदाहरण -
कमरी थोरे दाम की, बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
कह 'गिरिधर कविराय', मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥
[बदलें] अलंकार
कविता कामिनी के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले तत्वों को अलंकार कहते हैं। जिस प्रकार आभूषण से नारी का लावण्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार अलंकार से कविता की शोभा बढ़ जाती है।
[बदलें] अलंकार के भेद
- शब्दालंकारः जब शब्दों के द्वारा कविता के सौन्दर्य में निखार लाया जाता है तो उसे शब्दालंकार कहते हैं।
- अर्थालंकारः जब शब्दों के अर्थ के द्वारा कविता के सौन्दर्य को बढ़ाया जाता है तो उसे अर्थालंकार कहते हैं।
- उभयालंकारः जब शब्दों तथा शब्दों के अर्थ दोनों ही के द्वारा कविता की सुन्दरता में वृद्धि की जाती है तो उसे उभयालंकार कहते हैं।
[बदलें] प्रमुख अलंकारों का परिचय
[बदलें] अनुप्रास अलंकार
वर्णों की आवृति को अनुप्रास कहते हैं। उदाहरण -
चारु चन्द्र की चंचल किरणें,
खेल रहीं थीं जल-थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई थी,
अवनि और अम्बरतल में॥
[बदलें] अनुप्रास के प्रकार
- छेकानुप्रासः जब वर्णों की आवृति एक से अधिक बार होती है तो वह छेकानुप्रास कहलाता है। उदाहरण -
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
- वृत्यानुप्रासः जब एक ही वर्ण की आवृति अनेक बार होती है तो वृत्यानुप्रास होता है। उदाहरण -
काम कोह कलिमल करिगन के।
- लाटानुप्रासः जब एक शब्द या वाक्यखण्ड की आवृति होती है तो लाटानुप्रास होता है। उदाहरण -
वही मनुष्य है, जो मनुष्य के लिये मरे।
- अन्त्यानुप्रासः जब अन्त में तुक मिलता हो तो अन्त्यानुप्रास होता है। उदाहरण -
मांगी नाव न केवटु आना। कहहि तुम्हार मरमु मैं जाना॥
- श्रुत्यानुप्रासः जब एक ही वर्ग के वर्णों की आवृति होती है तो श्रुत्यानुप्रास होता है। उदाहरण -
दिनान्त था थे दिननाथ डूबते, सधेनु आते गृह ग्वाल बाल थे।
(यहाँ पर त वर्ग के वर्णों अर्थात् त, थ, द, ध, न की आवृति हुई है।)
[बदलें] यमक अलंकार
जब एक शब्द का प्रयोग दो बार होता है और दोनों बार उसके अर्थ अलग-अलग होते हैं तब यमक अलंकार होता है। उदाहरण -
घोर मन्दर के अन्दर रहन वारी, घोर मन्दर के अन्दर रहाती हैं।
(यहाँ पर मन्दर के अर्थ हैं अट्टालिका और गुफा।)
[बदलें] श्लेष अलंकार
जब किसी शब्द का प्रयोग एक बार ही किया जाता है पर उसके एक से अधिक अर्थ निकलते हैं तब श्लेष अलंकार होता है। उदाहरण -
पानी गये न ऊबरे, मोती मानुष चून।
[बदलें] उपमा अलंकार
जब किसी वस्तु की समता दूसरे समान गुण वाली वस्तु से की जाती है तब उपमा अलंकार होता है। उदाहरण -
राधा बदन चन्द्र सो सुन्दर।
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