काका हाथरसी
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(निम्नलिखित जानकारी इंडिया वर्ल्ड ऑन दि नेट के सौजन्य से:
सन १९०६ में हाथरस में जन्मे काका हाथरसी ( असली नाम: प्रभुनाथ गर्ग) हिंदी व्यंग्य के मूर्धण्य कवि थे। उनकी शैली की छाप उनकी पीढ़ी के अन्य कवियों पर तो पड़ी ही, आज भी अनेकों लेखक और व्यंग्य कवि काका की रचनाओं की शैली अपनाकर लाखों श्रोताओं और पाठकों का मनोरंजन कर रहे हैं।
व्यंग्य का मूल उद्देश्य लेकिन मनोरंजन नहीं बल्कि समाज में व्याप्त दोषों, कुरीतियों, भ्रष्टाचार और राजनीतिक कुशासन की ओर ध्यान आकृष्ट करना है। ताकि पाठक इनको पढ़कर बौखलाये और इनका समर्थन रोके। इस तरह से व्यंग्य लेखक सामाजिक दोषों के ख़िलाफ़ जनमत तैयार करता है और समाज सुधार की प्रक्रिया में एक अमूल्य सहयोग देता है। इस विधा के निपुण विद्वान थे काका हाथरसी, जिनकी पैनी नज़र छोटी से छोटी अव्यवस्थाओं को भी पकड़ लेती थी और बहुत ही गहरे कटाक्ष के साथ प्रस्तुत करती थी। उदाहरण के लिये देखिये अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार पर काका के दो व्यंग्य :
- बिना टिकिट के ट्रेन में चले पुत्र बलवीर
- जहाँ ‘मूड’ आया वहीं, खींच लई ज़ंजीर
- खींच लई ज़ंजीर, बने गुंडों के नक्कू
- पकड़ें टी.टी., गार्ड, उन्हें दिखलाते चक्कू
- गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार बढ़ा दिन-दूना
- प्रजातंत्र की स्वतंत्रता का देख नमूना
या फिर:
- राशन की दुकान पर, देख भयंकर भीर
- ‘क्यू’ में धक्का मारकर, पहुँच गये बलवीर
- पहुँच गये बलवीर, ले लिया नंबर पहिला
- खड़े रह गये निर्बल, बूढ़े, बच्चे, महिला
- कहँ ‘काका' कवि, करके बंद धरम का काँटा
- लाला बोले - भागो , खत्म हो गया आटा
काका हाथरसी का अविस्मरणीय योगदान उनकी सदा याद दिलायेगा।
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