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सामवेद संहिता - विकिपीडिया

सामवेद संहिता

From विकिपीडिया

सामवेद की अधिकांश ऋचाएं ऋग्‍वेद से ही ली गयी हैं। यह वेद गीत-संगीत प्रधान है। प्राचीन आर्यों द्वारा साम-गान किया जाता था। सामवेद चारों वेदों में आकार की दृष्टि से सबसे छोटा है और इसके १८७५ मन्त्रों में से ६९ को छोड़ कर सभी ऋगवेद के हैं। केवल १७ मन्त्र अथर्ववेद और यजुर्वेद के पाये जाते हैं। फ़िर भी इसकी प्रतिष्ठा सर्वाधिक है। इसकी प्रतिस्ठा अधिक होने का एक कारण गीता में कृष्ण द्वारा 'वेदाना सामवेदोऽस्मि' कहना भी है।

सामबेद यद्यपि छोटा है परन्तु एक तरह से यह सभी वेदों का सार रूप है और सभी वेदों के चुने हुए अंश इसमें शामिल किये गये है।


अनुक्रमणिका

[बदलें] पूर्वार्चिकः

[बदलें] प्रथम प्रपाठक:

[बदलें] प्रथमोऽर्धः

[बदलें] प्रथम दशति

अग्न आ याहि वीतये गुणानो हव्यदातये। नि होता सत्सि बर्हिषि।१
त्बमने यज्ञानाँ होता विश्वेषाँ हितः। देवेभिर्मानुषे जने।२
अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम। अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम्।३
अग्निवृर्त्राणि जंघनद द्रविणस्युर्विपन्यया। समिद्धः शुक्र आहुतः।४
प्रेस्ठं वो अतिथिँस्तुषे मित्रमिव प्रियम्। अग्ने रथं न वेद्दम्।५
त्वं नो अग्ने महोभिः पाहि विश्वस्या अरातेः। उत द्विषो मर्त्यस्य। ६
एह्यू षु व्रवाणि तेऽग्न इत्थेतरा गिरः। एभिर्वर्धास इन्दुभिः।७
आ ते वत्सो मनो यमत्परमाच्चित्सधस्थात्। अग्ने त्वां कामये गिरा।८
त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत। मूर्घ्नो वोश्वस्य वाघतः।९
अग्ने विवस्वदा भरास्मभ्यमूतये महे। देवो ह्यसि नो द्दशे।१०

[बदलें] द्वितीय दशति

नमस्ते अग्न ओजसे गृणन्ति देव कृष्टयः। अमैरमित्रमर्दय।१
दूतं वो विश्ववेदसँ हव्यवाहममर्त्यम्। यहिष्ठमृञ्जसे गिरा।२
उप त्वा जामयो गिरो देदिशतीर्हविष्कृतः। वायोरनीके अस्थिरन्।३
उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम्। नमो भरन्त एमसि।४
जराबोध तद्वितिड्‍ढि विशेविशे यज्ञियाय। स्तोमँ रुद्राय द्दशीकम्।५
प्रति त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय प्र हूयसे। मरुद्‍भिरग्न आ गहि।६
अश्वं न त्वा वार्वन्तं वन्दध्या अग्निं नमोभिः। सम्राजन्तमध्वराणाम्।७
और्वभृगुवच्छुचिमप्नवानवदा हुवे। अग्निँ समुद्रवाससम्।८
अग्निमिन्धानो मनसा धियँ सचेत मर्त्यः। अग्निमिन्धे विवस्वभिः।९
आदित् प्रत्नस्त्य रेतसो ज्योतिः पश्यन्ति वासरम्। परो यदिध्यते दिवि।१०

[बदलें] तृतीय दशति

अग्निं वो वृधन्तमध्वराणां पुरूतमम्। अच्छा नप्त्रे सहस्वते।१
अग्निस्तिग्मेन शोचिषा यँ सदविश्वं न्यऽत्रिणम्। अग्निर्नो वँसते रयिम्।२
अग्ने मृड महाँअस्यय आ देवयुं जनम्। इथेय बर्हिरासदम्।३
अग्ने रक्षा णो अँहसः प्रति स्म देव रीषतः। तपिष्ठैरजरो दह।४
अग्न युङ्क्ष्वा हि ये तपाश्वासो देव साधवः। अरं वहन्त्याशवः।५
नि त्वा नक्ष्य विश्पते द्युमन्तं धीमहे वयम्। सुवीरमग्न आहुत।६
अग्निमूर्द्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम्। अपाँ रेताँसि जिन्वति।७
इमम् षु त्वमस्माकँ सनि गायत्र्यं नव्याँसम्। अग्ने देवषु प्रवोचः।८
तंत्वा गोपवनो गिरा जनिष्ठदग्ने अङ्गिरः। स पावक श्रुधी हवम्।९
परि वाजपतिः कविरग्निर्हव्यान्यक्रमीत।दधद्रत्नानि दाशुषे।१०
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। द्दशे विश्वाय सूर्यम्।११
कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे। देवममीवचातनम्।१२
शं नो देवीरभिष्टये शं नो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्त्रवन्तु नः।१३
कस्य नूनं परीणसि धियो जिन्वसि सत्पते। गोषाता यस्य ते गिरः।१४

[बदलें] द्वितीयोऽर्धः

[बदलें] तृतीय दशति

तद्वो गाय सुते सचा पुरुहूताय सत्वने। शं यद् गवे न् शकिने।१
यस्ते नूनँ शतक्रतविन्द्र द्युम्नितमो मदः। तेन नूनं मदे मदेः।२
गाव उप वदावटे मही यज्ञस्य रप्सुदा। उभा कर्णा हिरण्यया।३
अरम्श्वाय गायत श्रुतकक्षारं गवे। अर्मिन्द्रस्य धाम्ने।४
तमिन्द्र वाजयाममि महे वृत्राय हन्तवे। स वृषा वृषभो भुवत्।५
त्वमिन्द्र बलादधि सहसो जात ओजसः। त्वँसन् वृषन् वृषेदसि।६
यज्ञ इन्द्रमवधयद्यद्भूमिं व्यवर्तयत्। चक्राण ओपशं दिवि।७
यदिन्द्राहं यथा त्वमीशीय वस्व एक इत्। स्तोता मे गोसखा स्यात्।८
पन्यंपन्यमित् सोतार आ धावत् मद्याय। सोमं वीराय शूराय।९
इदं वसो सुतमन्धः पिवा सुपूर्ण्मुदरम्। अनाभयिनरिमा ते।१०।

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